तेलंगाना: आदिवासी भोजन के लिए 30 किमी चलते हैं, इमली के रस से बच जाते हैं

स्वतंत्रता दिवस आ रहा है, आइए बात करते हैं कि इस आज़ादी का आदिवासियों के लिए क्या मतलब है?
एक बार मेरे पास डाउन टू अर्थ पत्रिका की एक पत्रकार आईं. उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे आदिवासी और स्वतंत्रता दिवस पर एक फीचर करना है. मैंने कहा, चलिए आपको आदिवासियों के गांव में ले चलता हूं.
मैं उस पत्रकार को सुकमा जिले के नेन्ड्रा गांव में ले गया. नेन्ड्रा गांव को सरकार ने तीन बार जलाया था. क्योंकि सरकार चाहती थी कि आदिवासी गांव खाली कर दें. सरकार ज़मीन कंपनियों को देना चाहती थी.
हमारे साथियों ने उस गांव को दुबारा बसाया और हम लोग गांव वालों को सुरक्षा बलों के हमलों से बचाने के लिए मानव कवच के रूप में वहां रह रहे थे. उस महिला पत्रकार ने गांव के बुज़ुर्ग भीमा पटेल के मुंह के सामने माइक लगा कर पूछा कि आपके लिए इस आज़ादी का क्या महत्व है?
भीमा ने आश्चर्य से उस महिला की तरफ देखा और पूछा आज़ादी? यह क्या होती है? भीमा ने मेरी तरफ़ मदद के लिए देखा. मैंने हंसते हुए उस पत्रकार से कहा कि आज़ादी समझने के लिए पहले ग़ुलामी समझना ज़रूरी है.
जिसने कभी ग़ुलामी न देखी हो वो आज़ादी भी नहीं समझ सकता. मैंने कहना जारी रखा… मैंने कहा कि यह आदिवासी तो दुनिया बनने से लेकर आज़ाद ही हैं. बस्तर के इन जंगलों में तो अंग्रेेज़ भी नहीं आए. इसलिए इन आदिवासियों ने अपनी ज़िंदगी में न ग़ुलामी देखी है न ग़ुलामी के बारे में सुना है.
ये तो जब से पैदा हुए हैं, आज़ाद ही हैं. बस्तर के आदिवासी ने अपने आस पास के हाट बाज़ार से आगे नहीं देखा, अख़बार वो पढ़ता नहीं, रेडियो उसके पास था नहीं. अंग्रेज़ आए और चले भी गए, बस्तर के गांव तक उसकी ख़बर भी नहीं पहुंची.
भारत राष्ट्र बन गया आदिवासी को पता भी नहीं चला. आज़ादी के साठ साल बीत गए, सरकार आदिवासी के पास नहीं आई. लेकिन फिर वैश्वीकरण शुरू हुआ और पूरी दुनिया की कंपनियां संसाधन बहुल इलाक़ों पर टूट पडीं.
इन कंपनियों के सामने सरकारें बहुत कमज़ोर साबित हुईं. सत्ताधारी नेता, अफ़सर और पुलिस मिल कर आदिवासी की ज़मीन छीनने लगे. जिन्हें क़ानून की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी दी गई थी वही क़ानून तोड़ने को देश का विकास कहने लगे.
इन्हीं हालात में आदिवासी ने देखा कि नक्सली इस हालत का बहुत सटीक वर्णन कर रहे हैं. नक्सली कह रहे थे कि यह आज़ादी झूठी है, सरकार पहले भी साम्राज्यवादी ताक़तों के हाथ में थी और अब नव साम्राज्यवादी ताक़तें सत्ता पर काबिज़ हो गई हैं.
इसलिए एक नव जनवादी जनसंघर्ष ही असली आज़ादी ला सकता है. नक्सलवादी सरकारी स्कूलों में पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी पर काले झंडे फहराते रहे. दूसरी तरफ सरकारें लोक कल्याण के नाम पर चलाई जा रही योजनाओं के नाम पर लूट पाट में लगी रहीं.